June 30, 2025

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“समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता” कांग्रेस की रणनीति और आपातकाल का राजनीतिक उपयोग: एन के वर्मा

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जालंधर ब्रीज:  1975 से 1977 के वर्ष भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय माने जाते है। देश में आपातकाल लागू था। प्रेस पर सेंसरशिप थी, विपक्षी नेता जेलों में थे, आम जनता भयभीत थी और लोकतंत्र लगभग निलंबित था। ऐसे माहौल में, जब संसद स्वतंत्र नहीं थी, और जन संवाद बाधित था, संसद में कोई बहस नहीं हों सकती थी, तब इंदिरा गांधी की नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े: “समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता”।

इंदिरा गांधी का 1975 में आपातकाल लागू किया जाना, केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं था, बल्कि उसके पीछे सत्ता को हर हाल में बचाए रखने का संकल्प था। इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला, जिसमें उनके चुनाव को अवैध करार दिया गया था। उस समय जब जनता में असंतोष फैल रहा था, विपक्ष एकजुट हो रहा था और कांग्रेस की स्थिति डगमगाने लगी थी। ऐसे समय में आपातकाल लगाना ओर संविधान संशोधन के ज़रिए वैचारिक सुरक्षा कवच तैयार करने का प्रयास कर, प्रस्तावना में “समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता” जैसे शब्दों को जोड़ना एक तीर से कई निशाने लगाने जैसा था।

इंदिरा गांधी 1971 में “गरीबी हटाओ” जैसे लोकलुभावन नारे के साथ सत्ता में लौटी थीं, तथा कई वामपंथी आर्थिक कदम उठाए थे। इन नीतियों को संविधानिक वैधता देने के लिए “समाजवाद” शब्द को जोड़ा गया। इससे उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि कांग्रेस की आर्थिक नीतियाँ संविधान-सम्मत हैं और उनकी विचारधारा भारत की मूल भावना से मेल खाती है। लेकिन इसका राजनीतिक उद्देश्य यह था कि कांग्रेस अपने विपक्षी दलों, जैसे जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, और अन्य दक्षिणपंथी या उदारवादी आर्थिक दृष्टिकोण रखने वाले दलों को यह दर्शा सके कि वे असंवैधानिक, गरीब विरोधी और जनविरोधी हैं। यह एक वैचारिक हमला था। जिसमें “समाजवाद” को भारतीयता का पर्याय बना देने की कोशिश की गई।

ओर इसी तरह जबकि “धर्मनिरपेक्षता” भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में बाबा साहिब डॉ भीम राव आंबेडकर ने पहले से ही अंतर्निहित किया हुआ था, जैसे धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25-28), समानता का अधिकार, अल्पसंख्यकों को भाषा और संस्कृति की स्वतंत्रता आदि। लेकिन “पंथनिरपेक्षता” शब्द को विशेष रूप से प्रस्तावना में जोड़ना कांग्रेस की एक सोची समझी राजनीतिक रणनीति थी। क्योंकि 1970 के दशक में कांग्रेस को यह समझ आने लगा था कि मुस्लिम मतदाता उसका स्थायी वोट बैंक बन सकते हैं यदि उन्हें यह विश्वास दिलाया जाए कि केवल कांग्रेस ही उनकी सच्ची रक्षक है। इसीलिए “पंथनिरपेक्षता” को संविधान में जोड़कर कांग्रेस ने यह वैधानिक छवि बनाई कि वह ही धर्मनिरपेक्षता की असली वाहक है।

वास्तव में इस शब्द का उपयोग धीरे-धीरे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति में बदल गया, जहां मदरसों को विशेष दर्जा, संवैधानिक संरक्षण की आड़ में समुदाय विशेष को कानून से अलग रखना, और तीन तलाक, शाह बानो प्रकरण जैसे मुद्दों पर वोट बैंक की राजनीति की गई। कांग्रेस ने “पंथनिरपेक्षता” को धर्मनिरपेक्षता की आत्मा की बजाय राजनीतिक ढाल बना लिया।

जब 1975-76 के समय कांग्रेस बुरी तरह से आलोचना में थी तो उस समय “समाजवाद” ओर “पंथ-निरपेक्षता” को 1976 में आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में जोड़ने के पीछे कांग्रेस का मकसद जनता का ध्यान तत्कालीन राजनीतिक संकट से ध्यान हटाना, उच्च न्यायालय द्वारा इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया जाने ओर उसके बाद आपातकाल लगाने से कांग्रेस की आम जन में हालत काफी खराब हो चुकी थी ओर उस पर जनता कर्फ्यू, नसबंदी अभियान और राजनीतिक दमन जैसे कदमों ने कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुँचाया था। ओर इसी दौरान विपक्षी दलों ओर नेताओं के प्रति समाज में काफी सहानुभूति थी तो कांग्रेस ने इस डैमेज को कंट्रोल करने के लिए यह जादू की छड़ी घुमाई और “समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता” को आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में डाला।

इस संशोधन को आपातकाल के दौरान लागू करने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उस समय कोई विरोधी आवाज़ नहीं थी। विपक्ष जेलों में था, अदालतें कमजोर थीं, और संसद कांग्रेस के पूर्ण नियंत्रण में थी। ऐसे में “समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता” का जोड़ा जाना कांग्रेस के लिए न केवल एक वैचारिक कवच था, बल्कि एक चालाक राजनीतिक अस्त्र भी। इमरजेंसी की पूर्ण तानाशाही में, जहां न संवाद था, न विरोध की अनुमति। यदि यह संशोधन लोकतांत्रिक वातावरण में लाया जाता, तो इसकी संवैधानिक वैधता, राजनीतिक मंशा और वास्तविक आवश्यकता पर सवाल उठते। कांग्रेस ने असल में संविधान की आत्मा को अपने सियासी उद्देश्यों के अनुरूप ढालने की कोशिश की। “समाजवाद” ओर “पंथनिरपेक्ष” की वैधता के ज़रिए पूंजीवाद और उदारीकरण की वकालत करने वालों को जनविरोधी बताया।

“समाजवाद” और “पंथनिरपेक्षता” को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ना एक वैचारिक निर्णय से अधिक राजनीतिक रणनीति थी, जिसमें कांग्रेस ने तत्कालीन चुनौतियों का समाधान संविधान संशोधन के माध्यम से करने की कोशिश की। इसके द्वारा कांग्रेस ने अपनी नीतियों को वैध ओर उदारवादी विचारवादी धाराओं को “सेक्युलर भारत” के खिलाफ बताकर जनमानस में खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की।

इसका सबसे बड़ा परिणाम यह हुआ कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे आदर्श, जो वास्तव में एक नैतिक विमर्श का विषय थे, धीरे-धीरे दलगत एजेंडे का हिस्सा बन गए। और यही कारण है कि आज, 50 वर्ष बाद भी, इन शब्दों को लेकर राजनीतिक बहस जारी है क्योंकि इनका जोड़ा जाना संविधान की आत्मा से नहीं, सत्ता की ज़रूरत से उत्पन्न हुआ था।


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