
जालंधर ब्रीज: योग । ध्यान की उच्च अवस्था। समाधि से भी परे। योग जिसका वर्णन हमारे ऋषि मुनियों ने वेदो और प्राचीन ग्रन्थों में किया है। यह योग कभी सर्वसाधारण के लिए सुभनहीं था। केवल ऋषि मुनि ही इसे जानते थे व अपने शिष्यों को इस योग की शिक्षा दीक्षा दिया करते थे जिससे इसका ज्ञान अत्यन्त सीमित था। परन्तु जनसाधारण को परंपराओं में इसकी थोडा बहुत ज्ञान अवश्य दिया जाता था जो पीढ़ी दर पीढ़ी परम्पराओं में आगे बढ़ता हुआ मानव जीवन को आसान बनाता था।
और सभी आज तक भी बिना सोचे समझे उनको करते चले आ रहे हैं क्योंकि यह सब उन्हें उनके बडो ने और उनके बड़ों को भी उनके बड़ों से यह सब करने के लिए कहा गया था। पूजा- पाठ, ईश प्रार्थना तथा सभी प्राणियों के लिए उनके जीवन जीने योग्य साधनों का प्रबंध करना आदि सब कुछ इसी प्रकार से हमारी परंपराओं में चला आ रहा है।
वर्तमान में में योग हमारे समक्ष एक अलग ही रूप में प्रस्तुत हुआ है जिसका लाभ जनसाधारण को मिल रहा है। अधिकांशतः योग शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित होकर रह गया है। कुछ व्यक्ति जो स्वास्थ्य को पा लेते है और इसे समझ लेते है वे इससे आगे की यात्रा करते हैं।
आज हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री जी के प्रसासों द्वारा ’21 जून ‘अंतराष्ट्रिय योग दिवस घोषित हुआ तथा सम्पूर्ण विश्व भारत की ओर फिर से सांस्कृतिक उत्थान हेतू आँखे गडाये हुए है। भारत की ये सांस्कृतिक सम्पदा वेदो व ग्रंथों के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व में जा रही है तथा योग के मन, कर्म, आत्मा पर पहने वाले प्रभावो पर नित नये शोध चर्चा परिचर्चा और शोध प्रकाशित हो रहे है।
भारत सदा से ही अध्यात्म का केन्द्र रहा है। अनेक धर्मों ने भारत में ही जन्म लिया है जो कालान्तर में अन्य देशों व क्षेत्र विशेष में आज भी अलग अलग नामों से जाने जाते है परन्तु उनका मूल ‘योग’ ही है।
योग का वास्तविक अर्थ है- एक हो जाना । कहीं भी कुछ भी जब अलग अलग होते हुए मिलजुलकर एक हो जाता है तो कहा जा सकता है कि उन सबका योग हो गया अर्थात सब जुड़कर, मिलकर एक हो गया फिर चाहे वे संख्याएं हो, वस्तुएं हो, मनुष्य हो अथवा कोई भी पदार्थ हो, जब दो नही केवल एक ही रह जाये।
जिस योग के विषय में सवा-सवा से मनुष्य जिज्ञासु रहा है यह है इस मानव शरीर में स्थित आत्मा का उप्स परमात्मा से मिलन। मह ऐसे नहीं होता कि किसी मनुष्य ने देह छोड़ी और वह परमात्मा से वा मिला अपितु इस मानव देह में रहकर बहुत से प्रत्यूत्नों द्वारा स्वयं को तन मन आध्या से शुद्ध करना होता है। हमारे भीतर उतना ही प्रेम और करुणा होनी चाहिए जितनी उस परर्मापता परमेश्वर में है।
हम उस परमात्मा की ज्योति से ही विलग हुए उसी के अंग है। इधर उधर योनियों में भटकते हुए इमने बहुत से राग द्वेष किये मन को निर्मल नहीं किया तो हम विकारों के साथ उस परमसत्ता में लीन नहीं हो सकते। हमे मन, क्रम वेचन आल्या सब ओर से निर्मल और स्वच्छ होना होगा तभी हमारा परमात्मा से योग होगा। हमें निर्विकार होना होगा तभी उस निविकार परमज्योति जिसे हम परमात्मा कहते है जो इस सम्पूर्ण सृष्टि को चलाता है उस परमज्योति से हम अपनी ज्योति को मिला पायेंगे । । एव कल्याण के साथ विश्वकल्याण की भावना अति आवश्यक है।
स्कन्ध पुराण के अनुसार –
“ जीवात्मा परमार्थोऽयमविभागः परमतपः
स एव परोयोगः समासा कथितस्तव।।”
-स्कन्ध पुराण
अर्थात् जीवात्मा व परमात्मा का अलग अलग होना ही दुःख का कारण है। और इस का अपृथक भाव ही योग है। एकत्व की स्थिति ही योग है।
कठोपनिषद के अनुसार जब चेतना निश्चेष्ठ मन शान्त, बुद्धि स्थिर हो जाती है. ज्ञानी इस स्थिति को सर्वोच्च स्थिति मानते है। चेतना और मन के दृढ निश्चय को ही योग कहते है। उसमें शुभ संस्कारों की उत्पत्ति और अशुभसरकारों का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग की है।
“ यदा पंचावतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्य न विचेष्टति तामाङः परमा गति।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम्।
अप्रमत्तस्दा भवति योगो हि प्रभवाप्ययी।।”
–कठोपनिषद-2/3/10-11
याज्ञवल्यक स्मृति के अनुसार
“ संयोगो योग इत्यक्तो जीवात्मा परमात्मनो।“
अर्थात् जीवात्मा परमात्मा के मिलन को योग कहते है।
अब प्रश्न उठता है एक योगी की पहचान क्या है- योगी योग में स्थित अर्थात सम स्थिति में रहता है। योग में स्थित व्यक्ति सुख-दुख ,लाभ-हानि, यश अपयश जैसी द्वंददात्मक स्थितियों से परे होकर एक दिव्य आनंद में रमण करता हुआ अपने सभी कर्म करता रहता है। उसका हृदय सरल, निर्मल और छल कपट से रहित होता है। ऐसे योगी ही सच्चे जनकल्याणकर्ता होते हैं – जैसे संत कवीरदास, संत रविदास, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, आदिगुरु शंकराचार्य, श्री योगानन्द जी। यह सभी आधुनिक युग के योगी हैं जिनके विषय में हम सभी भली-भांति जानते हैं।
योग किसी विशेष धर्म या संभ्प्रदाय से नहीं जुड़ा है। यह समस्त मानवजाति की निधि है। योग न केवल ध्यान अपितु चेतना के उन उच्चतम स्तरों तक पहुंचने का सेतु है जहाँ मनुष्य स्वयं सशरीर अभवा बिना देह के ब्रह्म का साक्षात्कार करता है। यदि सदेह है तो अपने जीवन के उद्देश्य को पहचान कर सदा उसमें संलग्न रहता है।
एक साधारण मानव के लिए योग अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करना लड़ाई-झगड़ा, राग-द्वेष से दूर रहकर स्वयं में स्थित होना है, अपने मन को शांत और निर्मल बनाना है। हमारा मन सदा से ही भटकाव में नहीं वरन योग में स्थित रहना चाहता है। सभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी योग की ओर अग्रसर हों। तथास्तु।।
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